उत्तराखंड

कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल को क्यों भूल रही हमारी सरकारें

चन्द्रकुंवर की जन्म शताब्दी पर विशेष रिर्पोट-

अभी भी नहीं मिली हीरे जैसे चमकते कवि को वास्तविक पहचान

बद्री नौटियाल
उस दौर में एक छोटे से गांव से साहित्य सर्जन की अलख जगाने वाले पहाड़ के चमकते हीरे चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की आज 103वीं जन्म शताब्दी है। बताया जाता है कि चन्द्रकुंवर द्वारा प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत से भी कई अधिक प्रभावशाली कविताएं लिखी गई है किंतु कवि को आज भी वास्तविक पहचान नही मिल पाई है। महज 28 साल 24 दिन की अल्पउम्र में ही चन्द्रकुंवर ने सैकड़ों काव्य रचनाएं लिखने का इतिहास रच डाला था उसे, जीते-जी ही नहीं मरने के 75 साल बाद भी वैसा सम्मान नहीं मिल पाया है जिसके वे असली हकदार थे। चन्द्रकुंवर के प्रति सरकारी उपेक्षा को देखिए कि लाख सरकारी दावों के बाद भी कवि की कर्मभूमि पवांलिया खंडहर में तब्दील है और यहां चारों ओर जंगली घास व झाड़ी उगी है।

खण्डहर के बीच घास और झाड़ी से घिरी कवि की कर्मभूमि पवांलिया

20 अगस्त 1919 में रुद्रप्रयाग जिले के मालकोटी गांव में पैदा हुए इस साहित्य और काब्यकार में पैदा होते ही विलक्षण प्रतिभा दिखाई देने लगी। चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का साहित्य के प्रति प्रेम उनके होश संभालते ही दिखाई देने लगा था। माता जानकी देवी और पिता भूपाल सिंह भी अपने जिन्दा रहते हुए इस हीरे की पहचान न कर सके। छोटी सी उम्र में चन्द्रकुंवर ने 700 से अधिक काब्य रचनाएं लिखी है, किंतु यह दुर्भाग्य ही है कि इस महान साहित्यकार की याद में घोषणाएं तो खूब की गई है किंतु काम के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ है। सरकार के कानों में इस महान कवि की रचनाओं की गूंज नहीं सुनाई देती है।

पवालिया को कर्मभूमि बनाते हुए करीब 7 साल तक लिखी काव्य रचनाएं

मालकोटि से पंवालिया तक कोई भी ऐसा बड़ा काम नहीं हुआ जिसमें उनकी यादें जिंदा रह सके। पवालिंया कर्मभूमि में उन्होंने करीब 7 साल तक काब्य रचनाएं लिखी। जिंदगी के अंत में भी वह यहां कविताएं लिखते रहे और कविताओं के साथ ही दुनिया से विदा हो गए। कविवर की कविताएं प्रकृति, पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं की गहरी अभिव्यक्ति से परिपूर्ण हैं। जीवन के अंतिम पलों में भी जब वे बीमारी से नही लड़ सके तो कविता लिखते-लिखते 14 सितम्बर 1947 को उन्होंने शरीर त्याग दिया और सबकी आंखों से बहुत दूर चले गए। शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा से पवांलिया में म्यूजियम (संग्राहलय) की घोषणा आज तक साकार नहीं हुई है। पैतृक गांव मालकोटि में भी कोई विशेष कार्य नहीं हुए हैं। याद में जिले में कोई पुस्तकालय नहीं है। यहां तक कि जनपद में चन्द्रकुंवर का सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं है। कवि की याद को जिंदा रखने वाली संस्थाएं भी सरकारी तंत्र द्वारा निरंतर उपेक्षा से खासी नाराज हैं।

यहां ली चन्द्रकुंवर ने शिक्षा-
गीत काब्य को समुद्र की तरह गहराई और आसामान जैसी बुलन्दी पहुंचाने वाले कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की प्रारम्भिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय उडामाण्डा में हुई जबकि इसके बाद वे जूनियर हाई स्कूल नागनाथ पोखरी और हाई स्कूल पौड़ी से उर्त्तीण हुए। इण्टर की परीक्षा उन्होंने डीएबी देहरादून और स्नातक प्रयाग विश्व विद्यालय इलाहबाद से पास की। एमए की शिक्षा लेने वह लखनऊ विवि गए। लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास से एमए की शिक्षा लेते हुए वह अस्वस्थ हो गए और बीच में ही पढ़ाई छोड़कर वापस पहाड़ लौट गए।


मालकोटि गांव के लोग भी निराश-
चन्द्रकुंवर के गांववाले भी इस साहित्यकार की उपेक्षा से निराश हैं। पूर्व ग्राम प्रधान दिलवान सिंह बर्त्वाल, गंभीर सिंह बर्त्वाल, युद्धवीर बर्त्वाल, हरेंद्र बर्त्वाल, विजेंद्र बर्त्वाल आदि कहते हैं कि कविवर के नाम पर यहां कुछ भी नहीं हुआ है। संग्रहालय भी नहीं बना। पुस्तकालय तक नहीं बना है जबकि कई कार्य किए जा सकते थे। यह क्षेत्र उपेक्षित है। सामाजिक कार्यकर्ता राजेश नेगी ने दुख व्यक्त करते हुए बताया कि पवांलिया में आज भी झाडियां उगी है। यहां जाने के लिए रास्ता तक नही है। कवि की कर्मभूमि में विकास करते हुए इसे पर्यटन के क्षेत्र से जोड़ा जा सकता था। किशोर न्याय बोर्ड के सदस्य नरेंद्र कंडारी ने बताया कि पवांलिया का विकास होता तो यह ऐतिहासिक स्थल बन सकता था। सामाजिक कार्यकर्ता हरीश गुसाईं, कलश के संस्थापक ओपी सेमवाल, दीपक बेंजवाल ने बताया कि चन्द्रकुंवर के सम्मान के लिए जितने भी प्रयास किए जाए कम ही है। वह ऐसे कवि थे जिन्होंने साहित्य को उस दौर में नई पहचान दी।

चन्द्रकुंवर से जुड़ी कुछ यादें-

सितार और बासुरी बजाने का शौक
इलाहबाद में बासुरी की शिक्षा ली
देहरादून प्रवास सबसे ज्यादा अच्छा लगता था
1938 में मालकोटि और पंवालिया आए
अगस्त्यमुनि में 10 माह तक प्रधानाचार्य पद पर रहे
सात वर्षो तक बीमारी से लड़ते रहे किन्तु लेखन नहीं छोड़ा
माता जानकी देवी ने चन्द्र और पिता भूपाल सिंह ने कुंवर नाम दिया, नामकरण के दिन इस महान कवि का नाम चन्द्रकुंवर रखा गया

यह संस्थाएं है समर्पित-

जिले में चन्द्रकुंवर बर्त्वाल साहित्य शोध संस्थान पंवालिया, चन्द्रकुंवर बर्त्वाल स्मृति संस्थान अगस्त्यमुनि, साहित्यिक संस्था कलश, चन्द्रकुंवर बर्त्वाल स्मृति न्यास मालकोटी और चन्द्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान देहरादून कवि की याद में अनेक कार्यक्रम आयोजित करती आ रही है। कवि के जन्म और स्मृति दिवस पर इन संस्थाओं द्वारा इस महान साहित्यकार की यादों को जीवंत बनाया जाता है। वहीं ये संस्थाएं कवि को वास्तविक सम्मान के लिए आज भी संघर्षरत है। जबकि सरकारी स्तर पर आज भी कोई ठोस और सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं।

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